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Summary of Movie :- 'Metro - In dino ' in Hindi

                             ​मेट्रो: इन दिनों... शहर की धड़कन में धड़कता दिल
​शहरों की भीड़ में, गूँजते शोर के बीच, अनुराग बसु की फ़िल्म "मेट्रो… इन दिनों" एक ऐसी रंगीन चादर बुनती है, जिस पर आधुनिक प्रेम के धागे सजे हैं। दिल्ली की बेक़रार साँसें, मुंबई की गुमनाम गलियाँ, कोलकाता की पुरानी यादें, पुणे के ख़ामोश सपने, और बेंगलुरु की जगमगाती रातें—ये सभी एक साथ मिलकर इंसान के दिल की नाजुक लय बन जाती हैं। यह फ़िल्म सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि रिश्तों के बनने और बिखरने पर लिखी गई एक कविता है। इसमें चार कहानियाँ एक-दूसरे से जुड़ती हैं, जहाँ धोखे का दर्द, खुद को जानने की सुबह, और संगीत की बेक़रार पुकार सबका साथ देती है।
​युवा प्रेम की पहली लौ, आकाश और श्रुति, अचानक आई मुश्किलों से घिर जाते हैं। एक अनचाही ख़ुशख़बरी और नौकरी की तलाश उनके रिश्ते को एक पतली डोर की तरह खींचती है, जो टूटने के क़रीब है, लेकिन फिर भी उम्मीद की साँसें थामे हुए है। वहीं, काजल और मोंटी के वैवाहिक जीवन में फीकापन है। बेवफ़ाई के साये और रोज़मर्रा की नीरसता उनके रिश्ते को खोखला कर रही है। काजल आज़ादी की नई राह पर निकलती है, लेकिन फिर से सुलह की कसक भरी राह पर लौट आती है। उसकी माँ, शिबानी, भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी के समझौतों से भरी ज़िंदगी जी रही हैं। लेकिन जब वह अपने कॉलेज के पुराने दोस्त परिमल से मिलती हैं, तो उनके दिल में एक नई उम्मीद की किरण जगती है। उनकी प्रेम कहानी, मानो समय की ठंडी हवा में एक गर्म अंगारा हो।
​इसी बीच, चुलबुली चुम्की अपने ही उलझनों के भँवर में खोई है। परिवार की उम्मीदों से दूर, उसे सुकून मिलता है पार्थ में—एक आज़ाद ख्याल थिएटर कलाकार, जिसकी बेफिक्री चुम्की के अस्त-व्यस्त जीवन को एक नई दिशा देती है। उनकी कहानी एक रेलवे स्टेशन पर ख़त्म होती है, जहाँ दर्द और ठीक होने की कोशिश एक-दूसरे से मिलती हैं।
​प्रेम का शाश्वत संगीत
​प्रीतम का संगीत इस फ़िल्म की आत्मा है। "इन दिनों" जैसा पुराना गीत नए रूप में वापस आता है और दिल में दबी हुई हज़ारों बातों को कह जाता है। द मेट्रो बैंड का संगीत सिर्फ़ बैकग्राउंड नहीं, बल्कि ख़ामोशी को भी एक गहरी आवाज़ देता है। पंकज त्रिपाठी की आँखों में छिपा दुख, कोंकणा सेन शर्मा की नाजुकता, नीना गुप्ता की बुद्धिमत्ता, और आदित्य रॉय कपूर का धीमापन—ये सभी किरदार अपनी-अपनी दुनिया में पूरी तरह से सजीव हैं। शहर भी इन कहानियों के ख़ामोश किरदार बनकर उभरते हैं। उनकी जगमगाती रोशनी में दिल के भीतर छिड़ी जंग और भी गहरी लगती है।
​आख़िर में, "मेट्रो… इन दिनों" कोई जीत का गीत नहीं है, बल्कि यह ज़िद और धैर्य की एक खूबसूरत तस्वीर है। इसमें दिल टूटने का दर्द, माफ़ी की रोशनी और ख़ुशी के कुछ पल मिलकर प्रेम के धागों को फिर से बुनते हैं। बसु हमें इस शहर के आईने में अपनी ही परछाई देखने के लिए बुलाते हैं, जहाँ ढेर सारी संभावनाओं के बीच अपनी कमज़ोरी को अपनाना पड़ता है। यह एक धीमी, उदास लेकिन गहरी धुन है, जो हमें बताती है कि ज़िंदगी को जीना और बार-बार प्रेम करना ही तो असली बात है।

Danny@vikramgulati.com 

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